अरसा पहले धर्मयुग या साप्ताहिक हिन्दुस्तान में शैलेन्द्र का यह गीत उनकी हस्तलिपी में छपा था उनकी तस्वीर के साथ, उसकी कटिंग मेरी फाईल में अब भी है चलिए पढें आप भी उसे और उसमें निहित आशावादी विचार को आत्मसात करें...
बेटी-बेटे
आज कल में ढल गया
दिन हुआ तमाम
तू भी सोजा सोगई
रंग भरी शाम
सांस सांस का हिसाब ले रही है जिन्दगी
और बस दिलासे ही दे रही है जिन्दगी
रोटियों के ख्वाब से चल रहा है काम
तू भी सोजा ....
रोटियों सा गोल गोल चांद मुस्कुरा रहा
दूर अपने देश से मुझे तुझे बुला रहा
नींद कह रही है चल, मेरी बाहें थाम
तू भी सोजा...
गर कठिन कठिन है रात ये भी ढल ही जाएगी
आस का संदेशा लेके फिर सुबह तो आएगी
हाथ पैर ढूंढ लेंगे , फिर से कोई काम
तू भी सोजा...
Sunday, June 15, 2008
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